मंगलवार, 26 मई 2015

पायथागोरस प्रमेय नहीं, बोधायन प्रमेय कहिये

पायथागोरस प्रमेय छोटी कक्षाओं से ही बच्चों को रटाया जाने लगता है जबकि यह कम लोग ही जानते होंगे कि वास्तव में‌ इसके रचयिता पायथागोरस नहीं वरन ऋषि बौधायन हैं, जिऩ्होंने यह रचना पायथागोरस से लगभग 250 वर्ष पहले की थी।

ऐसा भी‌ नहीं है कि पायथागोरस ने इसकी रचना स्वतंत्र रूप से की हो अपितु संस्कृत के ग्रन्थ शुल्ब सूत्र के अध्ययन  से ही प्राप्त की थी।

इस प्रमेय का वर्णन शुल्ब सूत्र (अध्याय १ श्लोक १२) में मिलता है
शुल्बसूत्र, स्रौत सूत्रों के भाग हैं शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं। शुल्ब सूत्र में यज्ञ करने के लिये जो भी साधन आदि चाहिये उनके निर्माण या गुणों का वर्णन है। यज्ञार्थ वेदियों के निर्माण का परिशुद्ध होना अनिवार्य था। अतः इनका समुचित वर्णन शुल्ब सूत्रों में दिया गया है |

निम्नलिखित शुल्ब सूत्र इस समय उपलब्ध हैं:

1. आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र

2. बौधायन शुल्ब सूत्र

3. मानव शुल्ब सूत्र

4. कात्यायन शुल्ब सूत्र

5. मैत्रायणीय शुल्ब सूत्र (मानव शुल्ब सूत्र से कुछ हद तक समानता)
6. वाराह (पाण्डुलिपि रूप में)

7. वधुल (आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र से समानता)   (पाण्डुलिपि रूप में) हिरण्यकेशिन

भिन्न आकारों की वेदी‌ बनाते समय ऋषि लोग मानक सूत्रों का उपयोग करते थे| इसी तरह प्रक्री (रस्सी) रूप से बीजगणित एवं रेखागणित का आविष्कार हुआ|



शुल्बसूत्र का एक खण्ड बौधायन शुल्ब सूत्र है। बौधायन शुल्ब सूत्र में ऋषि बौधायन ने गणित ज्यामिति सम्बन्धी कई सूत्र दिए |


बौधायन का एक सूत्र इस प्रकार है:

दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यंगमानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।
(बो। सू० १-४८)

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग -अलग बनाती हैं।

अर्थात 

किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है।

यहीं तो पायथागोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पायथागोरस के पहले से थी।

जो प्रमेय पायथागोरस ने दी वो है :

The sum of the areas of the two squares on the legs (a and b)
equals the area of the square on the hypotenuse (c).

ज्यामितिक साहित्य मूलतः ऋग्वेद से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार अग्नि के तीन स्थान होते हैं- वृत्ताकार वेदी में गार्हपत्य, वर्गाकार में अंह्यान्या तथा अर्धवृत्ताकार में दक्षिणाग्नि। तीनों वेदियों में से प्रत्येक का क्षेत्रफल समान होता है। अतः वृत्त वर्ग एवं कर्णी वर्ग का ज्ञान भारत में ऋग्वेद काल में था। इन वेदियों के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न  ज्यामितीय क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। जैसे किसी सरल रेखा पर वर्ग का निर्माण, वर्ग के कोणों एवं भुजाओं का स्पर्श करते हुए वृत्तों का निर्माण, वृत्त का दो गुणा करना। इस हेतु इनका मान ज्ञात होना जरूरी था।

इनके अतिरिक्त उऩ्होंने २ के वर्गमूल निकालने का सूत्र भी दिया है, जिससे उसका मान दशमलव के पाँच स्थान तक सही आता है तथा कई अन्य ज्यामितीय रचनाओं के क्षेत्रफल ज्ञात करने, ज्यामितीय आकारों के बारे तथा एक ज्यामितीय आकार को दूसरे समक्षेत्रीय आकार में परिवर्तित करना आदि |

ये है भारत का गणित ज्ञान !!

2 टिप्‍पणियां:

  1. महोदय,
    आपका ब्‍लॉग बहुत ज्ञानवर्धक हैए मैं वैदि‍क वि‍ज्ञान पर शोध कर रहा हूँ, कृपया आपका संपर्क पता या नंबर दें ताकि‍ आपसे बात हो सकें मेंरा मोबाइल नं. हैरू 09483081656, मैं राजभाषा अधि‍कारी के पद पर स्‍टेट बैंक ऑफ मैसूर, हुब्‍बल्‍ल्‍ाी कर्नाटक में कार्यरत हूँ।

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  2. Sir please Brunner vygotsky ki theory construction of knowledge


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