नामकरण
एवं विकासयात्रा
ऋक्संहिता
की भाषा को संस्कृत का आद्यतम उपलब्ध रूप कहा जा सकता
है। यह भी माना जाता है कि ऋक्संहिता के प्रथम और दशम मंडलों की भाषा प्राचीनतर
है। कुछ विद्वान् प्राचीन वैदिक भाषा को
परवर्ती पाणिनीय (लौकिक) संस्कृत से भिन्न मानते हैं। पर यह पक्ष भ्रमपूर्ण है।
वैदिक भाषा अभ्रांत रूप से संस्कृत भाषा का आद्य उपलब्ध रूप है। पाणिनि ने जिस संस्कृत भाषा का व्याकरण लिखा है उसके दो अंश हैं -
(1) (जिसे अष्टाध्यायी में "छंदप्" कहा गया है) और
(2) भाषा (जिसे लोकभाषा या लौकिक भाषा के रूप में माना जाता है)।
आचार्य
पतंजलि के "व्याकरण महाभाष्य" नामक प्रसिद्ध शब्दानुशासन के आरंभ में भी
वैदिक भाषा और लौकिक भाषा के शब्दों का उल्लेख हुआ है। "संस्कृत नाम दैंवी
वागन्वाख्याता महर्षिभि:" वाक्य में जिसे देवभाषा या 'संस्कृत' कहा गया है वह संभवत: यास्क, पाणिनि, कात्यायन और पंतजलि के समय तक
"छंदोभाषा" (वैदिक भाषा)
एवम् "लोकभाषा" के दो नामों, स्तरों व रूपों में व्यक्त थी।
बहुत
से विद्वानों का मत है कि भाषा के लिए "संस्कृत" शब्द का प्रयोग
सर्वप्रथ वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड (30 सर्ग) में हनुमन् द्वारा विशेषणरूप में (संस्कृता वाक्) किया गया
है।
भारतीय
परंपरा की किंवदंती के अनुसार संस्कृत भाषा पहले अव्याकृत थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवम्
प्रत्ययादि का विश्लिष्ट विवेचन नहीं हुआ था। देवों द्वारा प्रार्थना करने पर
देवराज इंद्र ने प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का उपायात्मक विधान प्रस्तुत किया।
इसी "संस्कार" विधान के कारण भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम
"संस्कृत" पड़ा। ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा" तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों की साहित्यिक
"वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक संस्कृत" या
"पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी भाषा को "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या
"साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।
भाषाध्वनि-विकास
की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - संस् (सांस् या श्वासों ) से बनी
(कृत्)। आध्यात्म एवम् सम्प्रक-विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है
- स्वयं से कृत् या जो आरम्भिक लोगों को स्वयं ध्यान लगाने एवम् परसपर सम्प्रक से
आ गई। कुछ लोग संस्कृत को एक संस्कार (सांसों का कार्य) भी मानते हैं।
देश-काल
की दृष्टि से संस्कृत के सभी स्वरुपों का मूलाधार पूर्वतर काल में उदीच्य, मध्यदेशीय एवम् आर्यावर्तीय विभाषाएं
हैं। पाणिनिसूत्रों में "विभाषा" या "उदीचाम्" शब्दों से इन
विभाषाओं का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों में
"प्राच्य" आदि बोलियाँ भी बोली जाती थीं। किन्तु पाणिनि ने नियमित
व्याकरण के द्वारा भाषा को एक परिष्कृत एवम् सर्वग्य प्रयोग में आने योग्य रूप
प्रदान् किया। धीरे - धीरे पाणिनिसंमत भाषा का प्रयोगरूप और विकास प्राय: स्थायी
हो गया। पतंजलि के समय तक आर्यावर्त (आर्यनिवास) के शिष्ट जनों
में संस्कृत प्राय: बोलचाल की भाषा बन गई।
"गादर्शात्प्रत्यक्कालकवनाद्दक्षिणेन हिमवंतमुत्तरेण
वारियात्रमेतस्मिन्नार्यावर्तें आर्यानिवासे..... (व्याकरण महाभाष्य, 6।3।109)" उल्लेख के अनुसार शीघ्र ही संस्कृत समग्र भारत के द्विजातिवर्ग और
विद्वत्समाज की सांस्कृतिक, विचाराकार एवम् विचारादान्प्रदान् की भाषा बन गई।
काल
विभाजन
संस्कृत
भाषा के विकासस्तरों की दृष्टि से अनेक विद्वानों ने अनेक रूप से इसका ऐतिहासि
कालविभाजन किया है। सामान्य सुविधा की दृष्टि से अधिक मान्य निम्नांकित कालविभाजन
दिया जा रहा है -
(1) आदिकाल (वेदसंहिताओं और वाङ्मय का काल - ई. पू. 4500 से 800 ई. पू. तक )
(2) मध्यकाल ( ई. पू. 800 से 800 ई. तक जिसमें शास्त्रों दर्शनसूत्रों, वेदांग ग्रंथों, काव्यों तथा कुछ प्रमुख
साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण हुआ )
(3) परवर्तीकाल ( 800 ई. से लेकर 1600 ई. या अब तक का आधुनिक काल )
इस
युग में काव्य, नाटक, साहित्यशास्त्र, तंत्रशास्त्र, शिल्पशास्त्र आदि के ग्रंथों की
रचना के साथ-साथ मूल ग्रंथों की व्याख्यात्मक,
कृतियों की महत्वपूर्ण सर्जना हुई। भाष्य, टीका, विवरण, व्याख्यान आदि के रूप में जिन
सहस्रों ग्रंथों का निर्माण हुआ उनमें अनेक भाष्य और टीकाओं की प्रतिष्ठा, मान्यता, और प्रसिद्धि मूलग्रंथों से भी
कहीं-कहीं अधिक हुई।
प्रामाणिकता
के विचार से इस भाषा का सर्वप्राचीन उपलब्ध व्याकरण पाणिनि की अष्टाध्यायी है। कम से कम 600 ई. पू. का यह ग्रंथ आज भी समस्त
विश्व में अतुलनीय व्याकरण है। विश्व के और मुख्यत: अमरीका के
भाषाशास्त्री संघटनात्मक भाषाविज्ञान की दृष्टि से अष्टाध्यायी को आज भी विश्व का सर्वोत्तम ग्रंथ मानते
हैं। "ब्रूमफील्ड" ने अपने "लैंग्वेज" तथा अन्य कृतियों में
इस तथ्य की पुष्ट स्थापना की है। पाणिनि के पूर्व संस्कृत भाषा निश्चय ही शिष्ट
एवं वैदिक जनों की व्यवहारभाषा थी। असंस्कृत जनों में भी बहुत सी बोलियाँ उस समय
प्रचलित रही होंगी। पर यह मत आधुनिक भाषाविज्ञों को मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि
संस्कृत कभी भी व्यवहारभाषा नहीं थी। जनता की भाषाओं को तत्कालीन प्राकृत कहा जा
सकता है। देवभाषा तत्वत: कृत्रिम या संस्कार द्वारा निर्मित ब्राह्मणपंडितों की
भाषा थी, लोकभाषा
नहीं। परंतु यह मत सर्वमान्य नहीं है। पाणिनि से लेकर पतंजलि तक सभी ने संस्कृत का
लोक की भाषा कहा है, लौकिक
भाषा बताया है। अन्य सैकड़ों प्रमाण सिद्ध करते हैं कि "संस्कृत" वैदिक
और वैदिकोत्तर पूर्वपाणिनिकाल में लोकभाषा और व्यवहारभाषा (स्पीकेन लैग्वेज) थी।
यह अवश्य रहा होगा कि देश, काल और समाज के संदर्भ में उसकी अपनी सीमा रही होगी। बाद में चलकर
वह पठित समाज की साहित्यिक, और सांस्कृतिक भाषा बन गई। तदनंतर यह समस्त भारत में सभी पंडितों
की, चाहे
वे आर्य रहें हों या आर्येतर जाति के - सभी की,
सर्वमान्य सांस्कृतिक भाषा हो गई और आसेतुहिमाचल इसका
प्रसार, समादर
और प्रचार रहा एवं आज भी बना हुआ है। लगभग सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से योरप
और पश्चिमी देशों के मिशनरी एवं अन्य विद्याप्रेमियों को संस्कृत का परिचय प्राप्त
हुआ। धीरे-धीरे पश्चिम में ही नहीं, समस्त विश्व में संस्कृत का प्रचार हुआ। जर्मन, अंग्रेज, फ्रांसीसी, अमरीकी तथा योरप के अनेक छोटे बड़े
देश के निवासी विद्वानों ने विशेष रूप से संस्कृत के अध्ययन अनुशीलन को आधुनिक
विद्वानों में प्रजाप्रिय बनाया। आधुनिक विद्वानों और अनुशीलकों के मत से विश्व की
पुराभाषाओं में संस्कृत सर्वाधिक व्यवस्थित, वैज्ञानिक और संपन्न भाषा है। वह आज केवल भारतीय भाषा ही नहीं, एक रूप से विश्वभाषा भी है। यह कहा
जा सकता है कि भूमंडल के प्रयत्न-भाषा-साहित्यों में कदाचित् संस्कृत का वाङ्मय
सर्वाधिक विशाल, व्यापक, चतुर्मुखी और संपन्न है। संसार के
प्राय: सभी विकसित और संसार के प्राय: सभी विकासमान देशों में संस्कृत भाषा और
साहित्य का आज अध्ययन-अध्यापन हो रहा है।
बताया
जा चुका है कि इस भाषा का परिचय होने से ही आर्य जाति, उसकी संस्कृति, जीवन और तथाकथित मूल आद्य आर्यभाषा
से संबद्ध विषयों के अध्ययन का पश्चिमी विद्वानों को ठोस आधार प्राप्त हुआ।
प्राचीन ग्रीक, लातिन, अवस्ता और ऋक्संस्कृत आदि के आधार
पर मूल आद्य आर्यभाषा की ध्वनि, व्याकरण और स्वरूप की परिकल्पना की जा सकी जिसें ऋक्संस्कृत का
अवदान सबसे अधिक महत्व का है। ग्रीक, लातिन प्रत्नगाथिक आदि भाषाओं के साथ संस्कृत का पारिवारिक और निकट
संबंध है। पर भारत-इरानी-वर्ग की भाषाओं के साथ (जिनमें अवस्ता, पहलवी, फारसी, ईरानी, पश्तो आदि बहुत सी प्राचीन नवीन
भाषाएँ हैं) संस्कृत की सर्वाधिक निकटता है। भारत की सभी आद्य, मध्यकालीन एवं आधुनिक आर्यभाषाओं
के विकास में मूलत: ऋग्वेद-एवं तदुत्तरकालीन संस्कृत का आधारिक एवं औपादानिक
योगदान रहा है। आधुनिक भाषावैज्ञानिक मानते हैं कि ऋग्वेदकाल से ही जनसामान्य में
बोलचाल की तथाभूत प्राकृत भाषाएँ अवश्य प्रचलित रही होंगी। उन्हीं से पालि, प्राकृत अपभ्रंश तथा तदुत्तरकालीन
आर्यभाषाओं का विकास हुआ। परंतु इस विकास में संस्कृत भाषा का सर्वाधिक और सर्वविध
योगदान रहा है। यहीं पर यह भी याद रखना चाहिए कि संस्कृत भाषा ने भारत के विभिन्न
प्रदेशों, और
अंचलों की आर्येतर भाषाओं को भी काफी प्रभावित किया तथा स्वयं उनसे प्रभावित हुई; उन भाषाओं और उनके भाषणकर्ताओं की
संस्कृति और साहित्य को तो प्रभावित किया ही, उनकी भाषाओं शब्दकोश उनक ध्वनिमाला और लिपिकला को भी अपने योगदान
से लाभान्वित किया। भारत की दो प्राचीन लिपियाँ-(1)
ब्राह्मी (बाएँ से लिखी जानेवाली) और (2) खरोष्ट्री (दाएँ से लेख्य) थीं।
इनमें ब्राह्मी को संस्कृत ने मुख्यत: अपनाया।
भाषा
की दृष्टि से संस्कृत की ध्वनिमाला पर्याप्त संपन्न है। स्वरों की दृष्टि से
यद्यपि ग्रीक, लातिन
आदि का विशिष्ट स्थान है, तथापि अपने क्षेत्र के विचार से संस्कृत की स्वरमाला पर्याप्त और
भाषानुरूप है। व्यंजनमाला अत्यंत संपन्न है। सहस्रों वर्षों तक भारतीय आर्यों के
आद्यषुतिसाहित्य का अध्यनाध्यापन गुरु शिष्यों द्वारा मौखिक परंपरा के रूप में
प्रवर्तमान रहा क्योंकि कदाचित् उस युग में (जैसा आधुनिक इतिहासज्ञ लिपिशास्त्री
मानते हैं), लिपिकला
का उद्भव और विकास नहीं हो पाया था। संभवत: पाणिनि के कुछ पूर्व या कुछ बाद से
लिपि का भारत में प्रयोग चल पड़ा और मुख्यत: "ब्राह्मी" को संस्कृत भाषा का वाहन
बनाया गया। इसी ब्राह्मी ने आर्य और आर्यतर अधिकांश लिपियों की वर्णमला और
वर्णक्रम को भी प्रभावित किया। यदि मध्यकालीन नाना भारतीय द्रविड़ भाषाओं तथा तमिल, तेलगु आदि की वर्णमाला पर भी
संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि का पर्याप्त प्रभाव है। ध्वनिमाला और ध्वनिक्रम की
दृष्टि से पाणिनिकाल से प्रचलित संस्कृत वर्णमाला आज भी कदाचित् विश्व की सर्वाधिक
वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय वर्णमाला है। संस्कृत भाषा के साथ-साथ समस्त विश्व में प्रत्यक्ष
या रोमन अकारांतक के रूप में आज समस्त संसार में इसका प्रचार हो गया है।
भाषावैज्ञानिक
वर्गीकरण
ऐतिहासिक
भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत भाषा आर्यभाषा परिवार के अंतर्गत रखी गई है।
आर्यजाति भारत में बाहर से आई या यहाँ इसका निवास था - इत्यादि विचार अनावश्यक
होने से यहाँ नहीं किया जा रहा है। पर आधुनिक भाषाविज्ञान के पंडितों की मान्यता
के अनुसार भारत यूरोपीय भाषाभाषियों की जो नाना प्राचीन भाषाएँ, (वैदिक संस्कृत, अवस्ता अर्थात् प्राचीनतम पारसी
ग्रीक, प्राचीन
गॉथिक तथा प्राचीनतम जर्मन, लैटिन, प्राचीनतम आइरिश तथा नाना वेल्ट बोलियाँ, प्राचीनतम स्लाव एवं बाल्टिक
भाषाएँ, अरमीनियन, हित्ती, बुखारी आदि) थी, वे वस्तुत: एक मूलभाषा की (जिसे
मूल आर्यभाषा, आद्य
आर्यभाषा, इंडोजर्मनिक
भाषा, आद्य-भारत-योरोपीय
भाषा, फादरलैंग्वेज
आदि) देशकालानुसारी विभिन्न शाखाएँ थी। उन सबकी उद्गमभाषा या मूलभाषा का
आद्यआर्यभाषा कहते हैं। कुछ विद्वानों के मत में-वीरा-मूलनिवासस्थान के वासी
सुसंगठित आर्यों को ही "वीरोस" या वीरास् (वीरा:) कहते थे।
वीरोस्
(वीरो) शब्द द्वारा जिन पूर्वोक्त प्राचीन आर्यभाषा समूह भाषियों का द्योतन होता
है उन विविध प्राचीन भाषाभाषियों को विरास (संवीरा:) कहा गया है। अर्थात् समस्त
भाषाएँ पारिवारिक दृष्टि से आर्यपरिवार की भाषाएँ हैं। संस्कृत का इनमें अन्यतम
स्थान है। उक्त परिवार की "केंतुम्" और "शतम्" (दोनों ही
शतवात्तक शब्द) दो प्रमुख शाखाएँ हैं। प्रथम के अंतर्गत ग्रीक, लातिन आदि आती हैं। संस्कृत का
स्थान "शतम्" के अंतर्गत भारतईरानी शाखा में माना गया है। आर्यपरिवार
में कौन प्राचीन, प्राचीनतर
और प्राचीनतम है यह पूर्णत: निश्चित नहीं है। फिर भी आधुनिक अधिकांश भाषाविद्
ग्रीक, लातिन
आदि को आद्य आर्यभाषा की ज्येष्ठ संतति और संस्कृत को उनकी छोटी बहिन मानते हैं।
इतना ही नहीं भारत-ईरानी-शाखा की प्राचीनतम अवस्ता को भी संस्कृत से प्राचीन मानते
हैं। परंतु अनेक भारतीय विद्वान् समझते हैं कि "जिद-अवस्ता" की अवस्ता
का स्वरूप ऋक्भाषा की अपेक्षा नव्य है। जो भी हो,
इतना निश्चित है कि ग्रंथरूप में स्मृतिरूप से अवशिष्ट
वाङ्मय में ऋक्संहिता प्राचीनतम है और इसी कारण वह भाषा भी अपनी उपलब्धि में
प्राचीनतम है। उसकी वैदिक संहिताओं की बड़ी विशेषता यह है कि हजारों वर्षों तक जब
लिपि कला का भी प्रादुर्भाव नहीं था, वैदिक संहिताएँ मौखिक और श्रुतिपरंपरा द्वारा गुरुशिष्यों के समाज
में अखंड रूप से प्रवहमान थीं। उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि
ध्वनि ओर मात्राएँ, ही
नहीं, सहस्रों
वर्षों पूर्व से आज तक वैदिक मंत्रों में कहीं पाठभेद नहीं हुआ। उदात्त
अनुदात्तादि स्वरों का उच्चारण शुद्ध रूप में पूर्णत: अविकृत रहा। आधुनिक
भाषावैज्ञानिक यह मानते हैं कि स्वरों की दृष्टि से ग्रीक, लातिन आदि के "केंतुम्"
वर्ग की भाषाएँ अधिक संपन्न भी हैं और मूल या आद्य आर्यभाषा के अधिक समीप भी।
उनमें उक्त भाषा की स्वरसंपत्ति अधिक सुरक्षित हैं। संस्कृत में व्यंजनसंपत्ति
अधिक सुरक्षित है। भाषा के संघटनात्मक अथवा रूपात्मक विचार की दृष्टि से संस्कृत
भाषा को विभक्तिप्रधान अथवा "श्लिष्टभाषा" (एग्लुटिनेटिव लैंग्वेज) कहा
जाता है।