गुरुवार, 18 जून 2015

ग्रामोफोन पर गूंजा प्रथम वाक्य 'वेद' का था

ग्रामोफोन का आविष्कार 19 वीँ सदी मेँ थॉमस अल्वा एडिसन ने किया था। इलेक्ट्रिक बल्ब और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे कई अन्य आविष्कार करने वाले एडिसन चाहते थे कि सबसे पहले ग्रामोफोन पर किसी प्रतिष्ठित विद्वान की आवाज रिकॉर्ड की जाये इसके लिये उन्होँने जर्मनी के प्रो. मैक्स मूलर को चुना जो 19 वीँ सदी की एक महान हस्ती थे।

मैक्स मूलर ने एडिसन से कहा कि एक समारोह मेँ यूरोप के कई विद्वान इकट्ठा हो रहे हैँ, उसी दौरान यह कार्य ठीक रहेगा। 

इसके मुताबिक एडिसन इंग्लैँड यूरोप पहुँच गये समारोह मेँ हजारोँ लोगोँ के सामने उनका परिचय कराया गया। सभी लोगोँ ने एडिसन का करतल ध्वनि से स्वागत किया। 

बाद मेँ एडिसन की गुजारिश पर मूलर स्टेज पर आये और उन्होँने ग्रामोफोन के रिकार्डिँग पीस पर कुछ शब्द बोले, इसके बाद एडिसन ने डिस्क को चालू किया और ग्रामोफोन से निकलती आवाज सभी दर्शकोँ को सुनाया। 

सभी लोग रोमांचित हो उठे, लोगो ने इस अनूठे आविष्कार के लिये एडिसन की जमकर प्रशंसा की। 

इसके बाद मैक्स मूलर दोबारा स्टेज पर आये और दर्शकोँ से बोले - "मैँने ग्रामोफोन पर जो कुछ भी रिकॉर्ड किया क्या वो आप लोगोँ को समझ मे आया?"

श्रोताओँ मैँ सन्नाटा छा गया, क्योँकि मूलर जो बोले थे वो किसी को भी समझ मेँ नहीँ आया था। 

फिर मैक्स मूलर ने उन्हेँ बताया कि- "वे संस्कृत मेँ बोले थे यह ऋग्वेद का पहला श्लोक सूक्त था जो कहता है "अग्निमीले पुरोहितं" 

"यह ग्रामोफोन डिस्क प्लेट पर रिकॉर्डेड पहला वाक्य था"

आखिर मूलर ने रिकॉर्ड करने के लिये यही वाक्य क्योँ चुना मैक्स मूलर ने इसके बारे मेँ कहा- 

"वेद मानव द्वारा रचित सबसे पहले ग्रंथ हैँ और यह वाक्य ऋग्वेद का पहला सूक्त है अति प्राचीन समय मेँ जब इंसान अपने तन को ढंकना भी नहीँ जानता था, शिकार पर जीवन-यापन करता था व गुफाओँ मेँ रहता था, तब हिन्दुओँ ने उच्च शहरी सभ्यता प्राप्त कर ली थी और उन्होँने दुनिया को वेदोँ के रूप मेँ एक सार्वभौमिक दर्शन प्रदान किया इसीलिये मैँने ये वाक्य इस मशीन पर रिकॉर्ड करने के लिये चुना"

हमारे देश मेँ ऐसी वैभवशाली विरासत है। जब इस वाक्य को फिर से रिप्ले किया गया तो वहाँ मौजूद तमाम लोग इस प्राचीन ग्रंथ के सम्मान मेँ खड़े हो गये।



मंगलवार, 16 जून 2015

विश्व के पहले शल्य चिकित्सक आचार्य सुश्रुत


सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है| शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की। सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है।


(सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है। विश्वामित्र से कौन से विश्वामित्र अभिप्रेत हैं, यह स्पष्ट नहीं। सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है। सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे। सुश्रुत का नाम नावनीतक में भी आता है। अष्टांगसंग्रह में सुश्रुत का जो मत उद्धृत किया गया है; वह मत सुश्रुत संहिता में नहीं मिलता; इससे अनुमान होता है कि सुश्रुत संहिता के सिवाय दूसरी भी कोई संहिता सुश्रुत के नाम से प्रसिद्ध थी। सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं। यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है।)

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। मद्य संज्ञाहरण का कार्य करता था। इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये औ शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर सरंचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी है.

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब--सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।

सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है : पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र

पूर्वतंत्र : पूर्वतंत्र के पाँच भाग हैं- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान । इसमें १२० अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी १२० अध्याय ही हैं।)

उत्तरतंत्र : इस तंत्र में ६४ अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को 'औपद्रविक' भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले 'उपद्रवों' के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग 'शालाक्यतंत्र' है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।

सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन है:

() छेद्य (छेदन हेतु)
() भेद्य (भेदन हेतु)
() लेख्य (अलग करने हेतु)
() वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए)
() ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए)
() अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए)
() विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए)
() सीव्य (घाव सिलने के लिए)

सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों (), २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-

1. अर्द्धआधार
2. अतिमुख
3. अरा
4. बदिशा
5. दंत शंकु
6. एषणी
7. कर-पत्र
8. कृतारिका
9. कुथारिका
10. कुश-पात्र,
11. मण्डलाग्र,
12. मुद्रिका,
13. नख 
14. शस्त्र
15. शरारिमुख
16. सूचि
17. त्रिकुर्चकर
18. उत्पल पत्र
19. वृध-पत्र,
20. वृहिमुख 
तथा 
21. वेतस-पत्र

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।

इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा २६ प्रकार के नेत्र रोगों का वर्णन किया है |

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। न्यूरो-सर्जरीअर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया प्लास्टिक सर्जरीका सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुतसंहिता में वर्णित हैं।

आप ऊपर चित्र मे देख सकते है की किस प्रकार आचार्य सुश्रुत अपने शिष्यों को शल्यक्रिया का अभ्यास विभिन्न निर्जीव वस्तुओं पर करवाते थे 

सुश्रुत सहिंता को हिंदी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -http://peterffreund.com/Vedic_Literature/sushruta/

सुश्रुत सहिंता को अंग्रेजी में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करे -http://chestofbooks.com/health/india/Sushruta-Samhita/index.html

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है।
शल्य-क्रिया द्वारा शिशु-जन्म(सीजेरियन) की विधियों का वर्णन है | न्यूरो-सर्जरीअर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया प्लास्टिक सर्जरीका सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है। आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है। 

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था। “अतुल्य वैज्ञानिक भारत 

मंगलवार, 26 मई 2015

पायथागोरस प्रमेय नहीं, बोधायन प्रमेय कहिये

पायथागोरस प्रमेय छोटी कक्षाओं से ही बच्चों को रटाया जाने लगता है जबकि यह कम लोग ही जानते होंगे कि वास्तव में‌ इसके रचयिता पायथागोरस नहीं वरन ऋषि बौधायन हैं, जिऩ्होंने यह रचना पायथागोरस से लगभग 250 वर्ष पहले की थी।

ऐसा भी‌ नहीं है कि पायथागोरस ने इसकी रचना स्वतंत्र रूप से की हो अपितु संस्कृत के ग्रन्थ शुल्ब सूत्र के अध्ययन  से ही प्राप्त की थी।

इस प्रमेय का वर्णन शुल्ब सूत्र (अध्याय १ श्लोक १२) में मिलता है
शुल्बसूत्र, स्रौत सूत्रों के भाग हैं शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं। शुल्ब सूत्र में यज्ञ करने के लिये जो भी साधन आदि चाहिये उनके निर्माण या गुणों का वर्णन है। यज्ञार्थ वेदियों के निर्माण का परिशुद्ध होना अनिवार्य था। अतः इनका समुचित वर्णन शुल्ब सूत्रों में दिया गया है |

निम्नलिखित शुल्ब सूत्र इस समय उपलब्ध हैं:

1. आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र

2. बौधायन शुल्ब सूत्र

3. मानव शुल्ब सूत्र

4. कात्यायन शुल्ब सूत्र

5. मैत्रायणीय शुल्ब सूत्र (मानव शुल्ब सूत्र से कुछ हद तक समानता)
6. वाराह (पाण्डुलिपि रूप में)

7. वधुल (आपस्तम्ब शुल्ब सूत्र से समानता)   (पाण्डुलिपि रूप में) हिरण्यकेशिन

भिन्न आकारों की वेदी‌ बनाते समय ऋषि लोग मानक सूत्रों का उपयोग करते थे| इसी तरह प्रक्री (रस्सी) रूप से बीजगणित एवं रेखागणित का आविष्कार हुआ|



शुल्बसूत्र का एक खण्ड बौधायन शुल्ब सूत्र है। बौधायन शुल्ब सूत्र में ऋषि बौधायन ने गणित ज्यामिति सम्बन्धी कई सूत्र दिए |


बौधायन का एक सूत्र इस प्रकार है:

दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यंगमानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।
(बो। सू० १-४८)

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग -अलग बनाती हैं।

अर्थात 

किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है।

यहीं तो पायथागोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पायथागोरस के पहले से थी।

जो प्रमेय पायथागोरस ने दी वो है :

The sum of the areas of the two squares on the legs (a and b)
equals the area of the square on the hypotenuse (c).

ज्यामितिक साहित्य मूलतः ऋग्वेद से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार अग्नि के तीन स्थान होते हैं- वृत्ताकार वेदी में गार्हपत्य, वर्गाकार में अंह्यान्या तथा अर्धवृत्ताकार में दक्षिणाग्नि। तीनों वेदियों में से प्रत्येक का क्षेत्रफल समान होता है। अतः वृत्त वर्ग एवं कर्णी वर्ग का ज्ञान भारत में ऋग्वेद काल में था। इन वेदियों के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न  ज्यामितीय क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। जैसे किसी सरल रेखा पर वर्ग का निर्माण, वर्ग के कोणों एवं भुजाओं का स्पर्श करते हुए वृत्तों का निर्माण, वृत्त का दो गुणा करना। इस हेतु इनका मान ज्ञात होना जरूरी था।

इनके अतिरिक्त उऩ्होंने २ के वर्गमूल निकालने का सूत्र भी दिया है, जिससे उसका मान दशमलव के पाँच स्थान तक सही आता है तथा कई अन्य ज्यामितीय रचनाओं के क्षेत्रफल ज्ञात करने, ज्यामितीय आकारों के बारे तथा एक ज्यामितीय आकार को दूसरे समक्षेत्रीय आकार में परिवर्तित करना आदि |

ये है भारत का गणित ज्ञान !!

स्वास्तिक

स्वास्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल का सूचक  है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वास्तिक चिन्ह अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। 

स्वास्तिक शब्द सु अस क से बना है। सुका अर्थ अच्छा, ‘असका अर्थ सत्ताया अस्तित्वऔर का अर्थ कर्त्ताया करने वाले से है। इस प्रकार स्वास्तिकशब्द का अर्थ हुआ अच्छाया मंगलकरने वाला। 

स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।

स्वास्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है।

प्रथम स्वास्तिक - जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे स्वास्तिक’ () कहते हैं।

द्वितीय स्वास्तिक - आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक’ (卍) कहते हैं। जर्मनी के हिटलर के ध्वज में यही वामावर्त स्वास्तिकअंकित था, जिसने उसका अंत किया।

बुल्गारिया में 7000 वर्ष पहले इस्तेमाल होता था, आपको आश्चर्य होगा लेकिन यह सत्य है पश्चिमी बुल्गारिया के Vratsa नगर के संग्रहालय मे चल रही एक प्रदर्शनी मे 7000 वर्ष प्राचीन कुछ मिट्टी की कलाकृतियां रखी गईँ हैं जिसपर स्वास्तिक (卍) का चिन्ह बना है

Vratsa शहर के ही निकट Altimir नामक गाँव के एक धार्मिक यज्ञ कुण्ड की खुदाई के समय ये कलाकृतियाँ मिली थी

स्वास्तिक का महत्व:-
स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि। स्वास्तिक भारतीयों में सभी मांगलिक कार्यों मेँ प्रयोग किया जाता है, जैसे - विवाह आदि घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वास्तिक का दोनोँ का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है, बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर
बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योग रूप सिर पर
हमेशा प्रभावी रहे

स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे, चारों तरफ़ भटके नही, वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण ऊर्जा को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है, स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है, बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एकतरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,

स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे व्याकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद सुउपसर्ग तथा अस्तिअव्यय (क्रम ६१)के संयोग से बना है, इसलिये सु अस्ति=स्वास्तिकइसमें इकोयणचिसूत्र से उकार के स्थान में विकार हुआ है। स्वास्तिमें भीअस्तिको अव्यय माना गया है और स्वास्तिअव्यय पद का अर्थ कल्याण’ ’मंगल’’शुभआदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे स्वास्तिकका नाम दे दिया जाता है।
स्वास्तिक का चिन्ह भारत के अलावा विश्व मेँ अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है, जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है, हिटलर का यह फ़ौज का निशान था, कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था, लेकिन उसके अंत के समय भूल से वर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था, जो उसके विनाश का कारण बना, जितना अर्थ सीधे स्वास्तिक का शुभ कार्योँ मेँ लगाया जाता है, उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है।
स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है, बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है, लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है, भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है, लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है, विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता स्वास्तिक के चारो और सर्वाधिक पॉजीटिव ऊर्जा पाई गई है दूसरे नंबर पर शिवलिँग है इसे वोविस नाम के वैज्ञानिक ने अपनी तकनीक से नापा इसलिये इसे वोविस एनर्जी कहते है । अधिक पाजिटिव एनर्जी की वजह से स्वास्तिक किसी भी तरह का वास्तुदोष तुरंत समाप्त कर देता है।

सोमवार, 25 मई 2015

श्रीमद्भागवत पुराण एवं आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity)


श्रीमद्भागवत पुराण में सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) आइंस्टीन से हजारों वर्ष पूर्व ही लिख दिया गया था | आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत (Theory of Relativity) के बारे में हम सभी भली प्रकार से परिचित हैं | आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की थी । उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न ग्रहों पर अलग-अलग होती है | काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है | उदाहरण के लिए यदि दो जुड़वा भाइयों में से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दूसरे को किसी अन्य ग्रह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात् लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा |
आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस ग्रह पर भेजा गया | उस ग्रह की सूर्य से दूरी तथा गति,  पृथ्वी की सूर्य से दूरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।
एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योंकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है, परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी तथा कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति 299792.458 किमी प्रति सेकंड की गति से (जो कि संभव नहीं है) दौड़ाया जाए तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति की घड़ी पूर्णतया रुक जायेगी | इसकी जानकारी के संकेत हमारे प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं।

श्रीमद्भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिल रहा था | इस समस्या के समाधान के लिए राजा रैवतक योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्रह्मलोक पहुँचे | जिस समय राजा अपनी पुत्री को लेकर ब्रहम लोक पहुँचे उस समय वहाँ गंधर्व गान चल रहा था | राजा अपनी पुत्री
 सहित उक्त कार्यक्रम के समापन की प्रतीक्षा की | जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?

ब्रह्मा जोर से हँसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी (1 चर्तुयुगी =4 सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ) = 1 महायुग ) बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना। अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भौगोलिक स्थितियाँ भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो | साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात्  तुम इसे भी जीवित नहीं पाते | अब यदि क्षण भर भी देर की तो द्वापर के पश्चात् कलियुग में पहुचोगे|”


इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है | यह कथा पृथ्वी से ब्रहम लोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी | यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromedia Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, -

"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्रह्माण्ड के सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्रह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"